दूषित अन्न का प्रभाव : महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया था। धर्मराज युधिष्ठिर एकच्छत्र सम्राट हो गए थे। श्रीकृष्णचंद्र की सम्मति से रानी द्रौपदी तथा अपने भाइयों के साथ वे युद्धभूमि में शरशैय्या पर पड़े प्राण त्याग के लिए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करते परम धर्मज्ञ १/७


भीष्मपितामह के समीप आए थे। युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्मपितामह उन्हें वर्ण, आश्रम तथा राजा-प्रजा आदि के विभिन्न धर्मों का उपदेश कर रहे थे। यह धर्मोंपदेश चल ही रहा था कि रानी द्रौपदी को हँसी आ गयी। ‘बेटी! तू हँसी क्यों?’ पितामह ने उपदेश बीच में ही रोक कर पूछा। २/७


द्रौपदी ने संकुचित हो कर कहा - ‘मुझसे भूल हुई। पितामह मुझे क्षमा करें।’ पितामह का इससे संतोष नहीं हुआ। वे बोले - ‘बेटी! कोई भी शीलवती कुलवधू गुरुजनों के सम्मुख अकारण नहीं हँसती। तेरी हँसी अकारण नहीं हो सकती। तू गुणवती है, सुशीला है। तेरी हँसी अकारण नहीं हो सकती। ३/७


संकोच छोड़ कर तू अपने हँसने का कारण बता।’ हाथ जोड़कर द्रौपदी जी बोलीं - ‘दादा जी! यह बहुत ही अभद्रता की बात है; किन्तु आप आज्ञा देते हैं तो कहनी पड़ेगी। आपकी आज्ञा मैं टाल नहीं सकती। आप धर्मोंपदेश कर रहे थे तो मेरे मन में यह बात आयी कि ४/७


‘आज तो आप धर्म की ऐसी उत्तम व्याख्या कर रहे हैं; किन्तु कौरवों की सभा में जब दुःशासन मुझे वस्त्रहीन करने लगा था, तब आपका यह धर्म ज्ञान कहाँ चला गया था? मुझे लगा कि यह धर्म का ज्ञान आपने बाद में सीखा है। मन में यह बात आते ही मुझे हँसी आ गयी, आप मुझे क्षमा करें।’ ५/७


पितामह ने शान्ति पूर्वक समझाया - ‘बेटी! इसमें क्षमा करने की कोई बात नहीं है। मुझे धर्म का ज्ञान तो उस समय भी था; परन्तु दुर्योधन का अन्यायपूर्ण अन्न खाने से मेरी बुद्धि मलिन हो गयी थी, इसीसे उस द्यूतसभा में धर्म का ठीक निर्णय करने में मैं असमर्थ हो गया था। ६/७


परन्तु अब अर्जुन के बाणों के लगने से मेरे शरीर का सारा रक्त निकल गया है। दूषित अन्न से बने रक्त के शरीर से बाहर निकल जाने के कारण अब मेरी बुद्धि शुद्ध हो गई है; इससे इस समय मैं धर्म का तत्व ठीक से समझता हूँ और उसका विवेचन कर रहा हूँ। — सुरेंद्र सिंह, कल्याण, वर्ष - जन० १९५६ ७/७


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